अर्धसत्य- दिलीप चित्रे

चक्रव्यूह में घुसने से पेहले
कौन था मै और कैसा था
ये मुझे याद ही न रहेगा

चक्रव्यूह में घुसने के बाद
मेरे और चक्रव्यूह के बीच
सिर्फ़ एक जानलेवा निकटता थी
इसका मुझे पता ही न चलेगा

चक्रव्यूह से निकलने के बाद
मै मुक्त हो जा‌ऊ भले ही
फ़िर भी चक्रव्यूह की रचना में
फ़र्क ही ना पडेगा

मरूं या मारूं
मारा जा‌ऊं या जांन से मार दू
इसका फ़ैसला कभी न हो पा‌एगा

सोया हु‌आ आदमी जब
नींद से उठकर चलना शुरू करता है
तब सपनों का संसार उसे
दोबारा दिख ही न पा‌एगा

उस रोशनी में जो निर्णय की रोशनी है
सब कुछ समान होगा क्या?
एक पलडे में नपुंसकता
एक पलडे में पौरूष

और ठीक तराजू के कांटे पर
अर्धसत्य!

-दिलीप चित्रे

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