उसे फिर लौट कर जाना है,
ये मालुम था उस वक़्त भी
जब शाम की सुरखो सुनहरी रेत
पर वो दौड़ती आई थी और,
लहरा के यु आगोश में बिखरी थी,
जैसे पूरा का पूरा समुन्दर लेकर उभरी है
उसे जाना है वो भी जानती तो थी
मगर हर रात फिर भी हाथ रख कर
जान पर खाती रही कसमे
न मै उतरूंगा उस सांसो के साहिल से
न वो उतरेगी
मेरे आसमा पर झूलते तारो के पेंड़ो से
मगर जब कहते कहते दास्ताँ
फिर वक़्त ने लम्बी जम्हाई ली
न वो ठहेरी और न मै ही रोक पाया था
बहुत फूंका सुलगते चाँद को
फिर भी उसे एक-एक कला घटते हुए देखा
बहुत खीचा समुन्दर को
मगर साहिल तलक हम ला नहीं पाए
शहर के वक़्त फिर उतरे हुए साहिल पे
-गुलझार
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hey, was reading ths.translations. https://www.indologie.uni-wuerzburg.de/fileadmin/indologie/user_upload/Tender_Ironies.pdf
ReplyDeleteHey Yogik,
ReplyDeleteHi.
I was very curious but this pdf seems monstrous in size or maybe the internet at my side screwed itself, pdf didn't load. If you have this pdf downloaded and if you can manage to send it, plz send it on my mail id bhowad.shraddha@gmail.com